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Friday, December 2, 2011

निगल गए सब के सब समंदर ज़मीन बची अब कहीं नहीं है...


निगल गए सब के सब समंदर ज़मीन बची अब कहीं नहीं है
बचाते हम अपनी जान जिस में , वो कश्ती अब तो कहीं नहीं है

वो आग बरसी है दो -पहर की के सारे मंज़र झुलस गए हैं
सुब’ह -सवेरे जो ताजगी थी वो ताजगी अब कहीं नहीं है

तुम अपने कस्बों में जा के देखो वहां भी अब शह’र ही बसे हैं
के ढूँदते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है

बहुत दिनों बाद पायी फुर्सत तो मैंने खुद को पलट के देखा
मगर मैं पहचानता था जिस को वो आदमी अब कहीं नहीं है

गुज़र गया वक़्त दिल पे लिख के न जाने कैसी अजीब बातें
वर्क पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है ....

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